आपको क्या भेंट करूं प्रभु मैं अयोग्य
आपको क्या भेंट करूं प्रभु मैं अयोग्य
आपको क्या भेंट करूं प्रभु मैं अयोग्य,
बात यदि पुण्य की तो उसमें भी मैं शून्य,
निष्ठा ना प्रह्लाद सी, विश्वास में भी कंप है,
प्रह्लाद भांति कैसे देखूं आपको मैं स्तंभ में।
पीड़ा कोई देता मानो प्रभु का स्पर्श हो,
माना मेरे भाग्य में न साधना कोई दर्ज हो,
बीते कल से आंकोगे तो केवल मुझपे पाप,
आज में जो आंको दिखे आप हेतु त्याग।
त्यागूं भी मैं क्या मैं प्राणी ठहरा कलिकाल का,
कण्णप्पा की भांति दे पाऊं ये पापी आंख ना,
क्रोध लोभ माया के इस ऋण को स्वीकारिये,
कंधों में न जान प्रभु लौटाता रहा भार ये।
मैं ना कहता कभी भी कि मुझे यूं स्वीकारिए,
केवट की भांति बस श्वास नाव में स्थान लें,
शबरी के झूठे बेरों को जैसे था स्वीकार प्रभु,
मेरे झूठे भाव को भी हे नाथ स्वीकारिये।
दंड देना मुझको किंतु हृदय से लगाकर,
और प्राण छुट जाए मेरे उस समय में आकर,
आंसू बहा करके रखते सब इच्छा वस्तु की,
पर आंखों के इन आंसुओं करते हरि की स्तुति।
प्रभु मेरे दोषों को क्षमा करो प्रार्थना,
आंसू करें हरि स्तुति दोषों को ना आंकना,
अपूर्णता से भरा हूं मैं हृदय में स्थान देना,
आंसू करें हरि स्तुति मेरे दोषों को ना आंकना।
प्रह्लाद ने हरि याद में अग्नि जैसे सही थी,
मीरा की हरि नाम में सर्प माला बनी थी,
मृत्यु तक भी वैसी निष्ठा मेरी ना हो नाथ,
पर प्रभु आयेंगें प्रह्लाद जैसा ये विश्वास।
आपका एक भाग प्रभु आपसे ही दूर है,
पाप का ये कलियुग तो फिर मेरा क्या कसूर है,
भूमि पे इस दोषों की मैं भी हूं इसी युग का,
दंड देना गले से लगाके भी मंज़ूर है।
झूठी दुनिया क्या जाने इन लेखों में हो आप ही,
वजह देना प्रभु मुझे पाए ना जो आप मिल,
अपूर्णता का घर हूं मैं भली भांति ज्ञात,
दोषों को हे नाथ मेरे पाओगे ना आप गिन।
सात पहर तो खत्म हुए जीवन का एक ही पहर बचा,
दोष जो होते रोज़ ये उत्पन्न नाम सहारे द्वंद्व करा,
भांति यदि कण्णप्पा सी भी निष्ठा मुझमें होती प्रभु,
बाहें काट के आप पे अपनी दे देता मैं भेंट चढ़ा।
पापी मन हिरण्यकश्यप चाहे भक्ति होलिका,
स्वर हरि नरसिंह का स्तंभ से ही गुंजेगा,
ध्यान रखना प्रभु और दोष हृदय चाहे ना,
आप सिवा बातें मेरी कोई समझ पाए ना।
तिनके को इस बहते राम सेतु का स्पर्श दो,
डूबी द्वारका में जगह देना हरि कक्ष को,
आंसू बहा करके रखते सब इच्छा वस्तु की,
पर आंखों के इन आंसुओं करते हरि की स्तुति।
बात यदि पुण्य की तो उसमें भी मैं शून्य,
निष्ठा ना प्रह्लाद सी, विश्वास में भी कंप है,
प्रह्लाद भांति कैसे देखूं आपको मैं स्तंभ में।
पीड़ा कोई देता मानो प्रभु का स्पर्श हो,
माना मेरे भाग्य में न साधना कोई दर्ज हो,
बीते कल से आंकोगे तो केवल मुझपे पाप,
आज में जो आंको दिखे आप हेतु त्याग।
त्यागूं भी मैं क्या मैं प्राणी ठहरा कलिकाल का,
कण्णप्पा की भांति दे पाऊं ये पापी आंख ना,
क्रोध लोभ माया के इस ऋण को स्वीकारिये,
कंधों में न जान प्रभु लौटाता रहा भार ये।
मैं ना कहता कभी भी कि मुझे यूं स्वीकारिए,
केवट की भांति बस श्वास नाव में स्थान लें,
शबरी के झूठे बेरों को जैसे था स्वीकार प्रभु,
मेरे झूठे भाव को भी हे नाथ स्वीकारिये।
दंड देना मुझको किंतु हृदय से लगाकर,
और प्राण छुट जाए मेरे उस समय में आकर,
आंसू बहा करके रखते सब इच्छा वस्तु की,
पर आंखों के इन आंसुओं करते हरि की स्तुति।
प्रभु मेरे दोषों को क्षमा करो प्रार्थना,
आंसू करें हरि स्तुति दोषों को ना आंकना,
अपूर्णता से भरा हूं मैं हृदय में स्थान देना,
आंसू करें हरि स्तुति मेरे दोषों को ना आंकना।
प्रह्लाद ने हरि याद में अग्नि जैसे सही थी,
मीरा की हरि नाम में सर्प माला बनी थी,
मृत्यु तक भी वैसी निष्ठा मेरी ना हो नाथ,
पर प्रभु आयेंगें प्रह्लाद जैसा ये विश्वास।
आपका एक भाग प्रभु आपसे ही दूर है,
पाप का ये कलियुग तो फिर मेरा क्या कसूर है,
भूमि पे इस दोषों की मैं भी हूं इसी युग का,
दंड देना गले से लगाके भी मंज़ूर है।
झूठी दुनिया क्या जाने इन लेखों में हो आप ही,
वजह देना प्रभु मुझे पाए ना जो आप मिल,
अपूर्णता का घर हूं मैं भली भांति ज्ञात,
दोषों को हे नाथ मेरे पाओगे ना आप गिन।
सात पहर तो खत्म हुए जीवन का एक ही पहर बचा,
दोष जो होते रोज़ ये उत्पन्न नाम सहारे द्वंद्व करा,
भांति यदि कण्णप्पा सी भी निष्ठा मुझमें होती प्रभु,
बाहें काट के आप पे अपनी दे देता मैं भेंट चढ़ा।
पापी मन हिरण्यकश्यप चाहे भक्ति होलिका,
स्वर हरि नरसिंह का स्तंभ से ही गुंजेगा,
ध्यान रखना प्रभु और दोष हृदय चाहे ना,
आप सिवा बातें मेरी कोई समझ पाए ना।
तिनके को इस बहते राम सेतु का स्पर्श दो,
डूबी द्वारका में जगह देना हरि कक्ष को,
आंसू बहा करके रखते सब इच्छा वस्तु की,
पर आंखों के इन आंसुओं करते हरि की स्तुति।
मैं प्रभु आपको क्या भेंट करूं जब मेरे पास कोई पुण्य या निष्ठा नहीं है। बीते जीवन में मेरे पाप ही अधिक हैं पर आज प्रभु के लिए त्याग की भावना है। मेरे भीतर कलियुग के दोष हैं फिर भी प्रभु से प्रार्थना है कि मेरी अपूर्ण भक्ति को भी स्वीकार करें। जैसे प्रभु ने शबरी के झूठे बेर और केवट की नाव को अपनाया था वैसे ही मेरी अशुद्ध भावनाओं को भी स्वीकार करें। अंत में प्रभु से विनती है कि दंड देकर भी मुझे अपने हृदय से लगाएं और मेरे आंसुओं को अपनी स्तुति मान लें। जय श्री राम।
Aapko Kya Bhent Karun Prabhu Main Ayogya-Kshma Karna Hari Mujhe (क्षमा करना हरि मुझे) Hari Narayan | Vayuu | Hindi Rap
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भजन में आत्मसमर्पण, विनम्रता और भक्ति की गहरी भावना व्यक्त होती है। मनुष्य की अपूर्णता और सांसारिक दोषों के बावजूद, ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्ति अत्यंत भावपूर्ण है।
यह भाव किसी साधक की विनयशील पुकार के समान प्रतीत होता है—जहाँ वह स्वयं को अयोग्य मानते हुए भी प्रभु के चरणों में समर्पित होना चाहता है। पुण्य और निष्ठा की न्यूनता का स्वीकार, फिर भी प्रभु की कृपा पाने की अभिलाषा, यही तो सच्चे प्रेम और शुद्ध भक्ति का सार है। कलियुग की बाधाओं और सांसारिक मोह की उलझनों के बावजूद, एक भक्त की तड़प और प्रभु के प्रति अनवरत आकर्षण इस भजन में गहनता से उभरता है।
शबरी के झूठे बेर हों या केवट की नाव, यह भजन यही भाव प्रकट करता है कि ईश्वर बाह्य रूप नहीं, बल्कि हृदय की सच्चाई और भावनाओं की शुद्धता को स्वीकार करते हैं। भक्ति में कोई नियम नहीं, कोई शर्त नहीं—बस निष्ठा की झलक मात्र ही पर्याप्त होती है। यही भाव आंसुओं की स्तुति में प्रकट होता है, जहाँ भक्त अपने दोषों को भूलकर केवल प्रेम और आत्मसमर्पण के माध्यम से प्रभु को पाने की इच्छा रखता है।
यह भाव किसी साधक की विनयशील पुकार के समान प्रतीत होता है—जहाँ वह स्वयं को अयोग्य मानते हुए भी प्रभु के चरणों में समर्पित होना चाहता है। पुण्य और निष्ठा की न्यूनता का स्वीकार, फिर भी प्रभु की कृपा पाने की अभिलाषा, यही तो सच्चे प्रेम और शुद्ध भक्ति का सार है। कलियुग की बाधाओं और सांसारिक मोह की उलझनों के बावजूद, एक भक्त की तड़प और प्रभु के प्रति अनवरत आकर्षण इस भजन में गहनता से उभरता है।
शबरी के झूठे बेर हों या केवट की नाव, यह भजन यही भाव प्रकट करता है कि ईश्वर बाह्य रूप नहीं, बल्कि हृदय की सच्चाई और भावनाओं की शुद्धता को स्वीकार करते हैं। भक्ति में कोई नियम नहीं, कोई शर्त नहीं—बस निष्ठा की झलक मात्र ही पर्याप्त होती है। यही भाव आंसुओं की स्तुति में प्रकट होता है, जहाँ भक्त अपने दोषों को भूलकर केवल प्रेम और आत्मसमर्पण के माध्यम से प्रभु को पाने की इच्छा रखता है।